शुक्रवार, 16 सितंबर 2011



दशहरे का मेला —पूर्णिमा वर्मन
मौसम बदल रहा था और हल्की-हल्की ठंड पड़ने लगी थी। इसी बीच न जाने कैसे छोटू बीमार पड़ गया। मुहल्ले के सारे बच्चों में उदासी छा गई। सबका दादा और शरारतों की जड़ छोटू अगर बिस्तर में हो तो दशहरे की चहलपहल का मज़ा तो वैसे ही कम हो जाता। ऊपर से अबकी बार मम्मियों को न जाने क्या हो गया था।
रमा आंटी ने कहा कि अबकी बार मेले में खर्च करने के लिए बीस रूपए से ज़्यादा नहीं मिलेंगे, तो सारी की सारी मम्मियों ने बीस रूपए ही मेले का रेट बाँध दिया। मेला न हुआ, आया का इनाम हो गया। बीस रूपए में भला कहीं मेला देखा जा सकता था? यही सब सोचते-सोचते हेमंत धीरे-धीरे जूते पहन रहा था कि नीचे से कंचू ने पुकारा -
'हेमंत, हेमंत चौक नहीं चलना है क्या?' हेमंत और सोनू भागते हुए नीचे उतरे और जल्दी से मोटर की ओर भागे जहाँ बैठा हुआ स्टैकू पहले ही उनका इंतज़ार कर रहा था।
दुर्गापूजा की छुटि्टयाँ हो गई थी। मामा जी के घर के सामने वाले पार्क में हर शाम को ड्रामा होता था। हेमंत, कंचू और सोनू इन छुटि्टयों में शाम को मामा जी के यहाँ जाते थे, जहाँ वे ममेरे भाई स्टैकू के साथ ड्रामा देखते, घूमते फिरते और मनोरंजन करते।
हर बार सबके नए कपड़े सिलते और घर भर में हंगामा मचा रहता। अबकी बार कंचू ने गुलाबी रंग की रेशमी फ्राक सिलाई थी और ऊँची एड़ी की चप्पलें ख़रीदी थीं। आशू और स्टैकू मिलकर बार-बार उसकी इस अलबेली सजधज के लिए उसे चिढ़ा देते।
उधम और शरारतों की तो कुछ बात ही मत पूछो जब सारे भाई बहन इकठ्ठे होते तो इतना हल्ला-गुल्ला मचता कि गर्मी की छुटि्टयों की रौनक भी हल्की पड़ जाती। इस साल भी बच्चों का वही नियम शुरू हो गया था। शाम को वे लोग शहर में लगी रंगीन बत्तियों की रौनक देखते हुए चौक पहुँचे और घर में घुसते ही खाने की मेज पर जम गए। मामी ने खाने का ज़बरदस्त इंतज़ाम किया था। आशू के पसंद की टिक्कियाँ, कंचू की पसंद के आलू और स्टैकू की पसंद की गर्मागर्म चिवड़े-मूँगफली की खुशबू घर में भरी थी। रवि की पसंद के सफ़ेद रसगुल्ले मेज़ पर आए तो सबको रवि की याद आ गई।
'रवि ओ रवि, नाश्ता करने आओ'
मामी ने ज़ोर से आवाज़ दी।
"आया माँ" रवि की आवाज़ सबसे ऊपर वाले कमरे से आई।
"अरे ये रवि ऊपर क्या कर रहा है? कंचू ने अचरज से पूछा।
मामी ने बताया कि अबकी बार नाटक में उसने भी भाग लिया है इसलिए वो ऊपर कार्यक्रम की तैयारी और रिहर्सल में लगा हुआ है।
थोड़ी देर में पूरा मेकअप लगाए हुए टींकू नीचे उतरा तो सभी उसे देखकर खिलखिला कर हँस दिए। टींकू ने शरमा कर मुँह फेर लिया। "हमें अपने नाटक में नहीं बुलाओगे" हेमंत ने पूछा।
"तो क्या तुम्हें हमारे नाटक के टिकट नहीं मिले? " रवि ने अचरज से कहा, "टिकट तो सारे स्टैकू के पास थे।"
"अरे हाँ जल्दी-जल्दी में टिकट मैं तुम्हें देना भूल गया, "स्टैकू ने गिनकर तीन टिकट आशु, सोनू और कंचू के लिए निकाले। सोनू ने पूछा, "बिना टिकट नाटक देखना मना है क्या?" रवि ने कहा "मना तो नहीं है लेकिन कुर्सियाँ हमने टिकट के हिसाब से लगाई हैं।

"अरे तुम लोगों का अभी तक नाश्ता नहीं ख़त्म हुआ, देखो, रामदल के बाजे सुनाई पड़ने लगे। नाश्ता ख़त्म करे बिना घूमने को नहीं मिलेगा। फिर रात के बारह बजे तक तुम लोगों का कोई अतापता नहीं मिलता।" मामी ने रसोई में से ही चिल्लाकर कहा।
जल्दी-जल्दी खा-पीकर वे सब ऊपर के छज्जे पर आ गए। मामा जी ने दल पर फेंकने के लिए ढेर-सी फूलों की डालियाँ ख़रीद ली थी। उन्होंने राम लक्ष्मण पर डालियाँ फेंकी, रामदल का मज़ा लिया और नीचे आ गए। पार्क में पहुँचे तो नाटक शुरू ही होने वाला था। सबने अपनी-अपनी कुर्सियाँ घेर ली। थोड़ी देर में दर्शकों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि पूरा पार्क भर गया। कुर्सियों के आसपास खड़े लोग कुर्सियों पर गिरे पड़ते थे, मानो तिल रखने को भी जगह नहीं थीं। इस सबसे घबराकर सोनू घर चलने की ज़िद करने लगा। थोड़ी देर तो वे लोग वहाँ बैठे पर जब उसने अधिक ज़िद की तो वे उठे और भीड़ में से किसी तरह रास्ता बनाते गिरते पड़ते सड़क पर आ गए।
खोमचे वाले हर जगह जमे हुए थे। चूरन, भेलपूड़ी, चाट, आइस्क्रीम और मूँगफली, सबने अपनी छोटी-छोटी ढेर-सी दुकाने खोल ली थीं। मिठाइयों और खिलौनों की भी भरमार थी। सड़क पर खूब हलचल थी और लाउड़स्पीकरों पर ज़ोर-ज़ोर से बजते हुए गाने कान फाड़े डालते थे।
आशू ने एक मूँगफली वाले से मुँगफली ख़रीद कर अपनी सारी जेबें भर लीं और सभी बच्चों ने अपने पसंद की चीज़ें ख़रीदीं। वे घर लौट कर आए तो मामा जी ने कहा, "अब तुम सब कार में बैठो, मैं तुम्हें घर छोड़ आऊँ?"
सिर्फ़ आइस्क्रीम और मूँगफल्ली में ही पंद्रह रुपए खर्च हो गए। फिर बीस रुपए में मेला कैसे देखा जाएगा। मामा जी ने हेमंत को उदास देखकर पूछा, "हेमंत बेटे, तुम्हें रोशनी और नाटक देखकर अच्छा नहीं लगा क्या? इतने उदास क्यों हो?''
सोनू और कंचू बोले, "मामा जी सिर्फ़ हेमंत ही नहीं, हम सभी बच्चे बहुत उदास हैं। एक तो छोटू को बुखार होने के कारण इस बार दशहरे पर हम अपनी फाइवस्टार सर्कस नहीं कर पा रहे हैं, दूसरे हम सबको मेले के लिए अबकी बार सिर्फ़ बीस रुपए मिलेंगे। इतने में मेला कैसे देखा जा सकता है?"
मामाजी मुस्करा कर बोले, "मेले में तुम्हें मिठाइयाँ ही ख़रीदनी होती हैं न? चलो भाई, अबकी बार मिठाई हम ख़रीद देंगे। बीस रुपए जमा करके तुम पुस्तकालय के सदस्य बन जाओ और नियमित रूप से पुस्तकें पढ़ो तो साल भर तुम्हारा ज्ञान भी बढ़ेगा और मनोरंजन भी होगा।"
सोनू ने पूछा, "तो मामा जी, पुस्तकालय में कॉमिक्स भी मिलती हैं क्या?"
"हाँ, हाँ, सब तरह की किताबें होती हैं वहाँ। कॉमिक्स से लेकर विज्ञान तक हर विषय की। कल सुबह तैयार रहना, तो तुम्हें पुस्तकालय दिखा लाऊँगा।
बच्चे घर लौटे तो मेले की मिठाइयाँ भूलकर पुस्तकालय की बातें करने लगे। सामने दुर्गा जी के मंदिर में अष्टमी की आरती के घंटे बजने शुरू हुए तो दादी जी ने याद दिलाया, "आरती लेने नहीं चलोगे क्या?" यह पुकार सुन सभी बच्चे दादी जी के साथ आरती लेने चल दिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

koi jhijhak nahi, kripya kuchh bhi jarur likhen....
or aage achha karne-likhne ka sahas badhayen.