सोमवार, 5 दिसंबर 2011

हाय रे महंगाई


हाय रे महंगाई ने, कैसी मार लगायी करें भी तो क्या कोई चारा नहीं है,
कपड़े जो पहने थे सब उतर गए, कीमतों की बढ़त से पांव ज़मीन से फिसल गए!
खाना खाने में भी करना पड़ता है selection,
एक वक्त तो प्याज़ वाली dishes का तो menu से ही हो गया है deletion!
एक ही चीज़ है जिसकी दर घट रही है,
एक रुपये से पचास पैसे अब तो आधे पैसे में ही, call rate पड़ रही है!
काश बातों से ही, पेट भर जाया करते,
फिर रोटी कपड़ा मकान, के लिए लोग न तरस्ते !
हर महीने की आखिरी तारिक़ का रहता है इंतज़ार,
यही सोच के की शायद salary कुछ ज़्यादा आजाये इस बार!
हर सपने की कीमत को तौल लिया है इसलिए सपने देखना ही छोड़ दिया है,
पांव चादर से बाहर न निकले इसलिए चादर को ही मोड़ लिया है!
cycle चला रहे हैं बेच दी है गड्डी,
competition की दुनिया में रह गए हैं फिसड्डी!
इस महंगाई ने तो तोड़ दी है हर इंसान की रीड़ की हड्डी,
ज़िन्दगी की दौड़ में बस खेल रहे हैं कबड्डी!!

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koi jhijhak nahi, kripya kuchh bhi jarur likhen....
or aage achha karne-likhne ka sahas badhayen.