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मंगलवार, 12 जुलाई 2011

प्रश्नचिह्न(?)

BIRTH AND DEATH
मार्क्स ने कहा था, “चर्च का पुजारी जानता है कि ईश्वर नहीं है, और अगर है भी तो चर्च में तो कभी नहीं आयेगा.”
मोहन ने यह पढा था और यह बात घर कर गयी थी उसके दिल में.
वह था भी कुछ असाधारण सा.बचपन से ही अत्यंत तीव्र बुद्धि वाला होते हुए भी वह अपनी कोई खास पहचान नहीं बना पाया था. ईश्वर के अस्तित्व के बारे में संदेह न जाने कब उसके दिल में उपजा था? उसके माता पिता भी कोई असाधारण व्यक्तित्व वाले नहीं थे. माँ को तो उसने प्रत्येक व्रत, उपवास करते देखा था.पिता भी रामचरितमानस, गीता और महाभारत का पारायण करते थे, पर व्रत, उपवासों में उनकी कोई खास आस्था नहीं दिखती थी. वे न कृष्ण जन्माष्ठमी के उत्सवों में कोई उत्साह दिखाते थे न राम नवमी के. सत्यनारायण की कथा भी बहुत खास अवसरों पर ही कराते देखा था, उसने अपने पिता को.पता नहीं माँ का दबाव नहीं रहता तो उसके पिता शायद वह भी नहीं कराते. सत्यनारायण कथा के बारे में स्वयं उसके विचार भी ज्यादा अच्छे नहीं थे. मंदिरों का ढोंग भी उसने देखा था.गाँव के मंदिर में पुजारी का चढावे की मात्रा के अनुसार आशीर्वाद और फूल का वितरण तो उसका जाना पहचाना था. पुस्तकों के शौकीन मोहन को वहाँ से भी कोई खास ऐसी चीज नहीं मिली थी,जिससे उसके विचारों में स्थिरता आती.
इंही अंतर्द्वंदों के बीच पलता मोहन एक बार अपने साथियों के साथ वाराणसी जा पहुँचा. विश्वनाथ मंदिर का महात्म्य और बावा विश्वनाथ के प्रभाव के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था उसने.उसने तो यह भी पढा था कि काशी शिव के त्रिशूल पर बसी हुई नगरी है. विश्वामित्र ने भी ऋण चुकाने के लिए राजा हरिश्चंद्र को वहीं बिकने की सलाह दी थी.वह उस समय उच्च माध्यमिक विद्यालय का छात्र था .काशी दर्शन, गंगा स्नान के उल्लास के साथ ही साथ उसके मन का उत्साह मर गया था, जब उसने कदम रखा सुप्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में.वहाँ घृणित व्यापार के अतिरिक्त कुछ भी तो उसको नजर नहीं आया था. लूट लिया गया था मोहन अपने सखाओं के साथ उस मंदिर के अंदर. निकलवा लिए थे उन लोगों के सब पैसे उन ढोंगियों ने जो धर्म का ठेकेदार होने का दावा तो करते थे.पर शिकार करते थे धर्म की आड में उन भोले भाले इंसानों का जो इनको देवताओं से कम दर्जा नहीं देते थे. देखा था उस छोटी उम्र में भी उसने उस नग्न नृत्य को. दिल टूट गया था उसका.वे लोग किस तरह थोडे बचे पैसों में घर पहुँचे, भूल नहीं पाया मोहन उसको आज भी.
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मोहन बढता रहा और पढता रहा. पढता रहा और बढता रहा .अंतर्द्वंद भी जारी रहा. किस्मत ने ला पटका उसे एक कैथोलिक कालेज में इंटर की शिक्षा के लिए. उसके दिल को भा गया वहाँ का अनुशासन, वहाँ के चर्च से संबंधित लोगों की सेवा भावना.एक दिन वह जा पहुँचा उनके बडे़ चर्च में भी. उस समय वहाँ कोई नहीं था, एक चौकीदार के अतिरिक्त.सर्वत्र एक शान्ति व्याप्त थी और सामने था सूली पर इसा मसीह का शरीर.वह वहाँ बहुत देर तक बैठा रहा.बाद में उठा था वह वहाँ से विचारों में खोया हुआ. क्या ईश्वर यहाँ है? उसने वहाँ कोई भीड नहीं देखी. लोग थे नहीं, अतः किसी तरह के विचारों का आदान प्रदान, दान दक्षिणा इत्यादि भी नहीं देखा था उसने. उसको लगा कि यहाँ ईश्वर हों या न हों, पर शांत चित मनन तो किया जासकता है, प्रार्थना तो की जा सकती है.
यह मृग मरीचिका भी थोडे ही दिनों तक उसका साथ दे पायी. उसने देखा कि किस तरह लोगों को फुसला कर इसाई बनाया जा रहा है.किस तरह अन्य धर्मावलंबियों से घृणा की जा रही है.सरस्वती पूजा भी नहीं करने दिया गया था कालेज के छात्रावास में.बगल के मकान में सरस्वती पूजा का आयोजन करने वाले छात्रों को हवन कुंड के लिए रेत और पूजा के लिए फूल नहीं लेने दिये गये थे कालेज के प्रांगण से. वह यह सब देखता था और सोचता था, यह सब क्या है? आखिर क्यों है ऐसा?
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यह सब तो उसके पिछले यादों का अंश था. आज तो उसमे परिपक्वता आ गयी है. मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थलों में भी जाता रहा है वह. धार्मिक स्थलों में धर्म की आड़ लेकर जघन्य कारनामों की कहानियाँ भी सुन चुका है वह. इसी बीच उसकी नजर पडी थी मार्क्स के कथन पर और फिर हलचल मची थी उसके मस्तिष्क में..
आज वह खडा है इस छोटे शहर के एक मंदिर के पुजारी के सामने.यह भी एक संयोग ही है. वह बहुत दिनों बाद इस शहर मे आया है. प्राकृतिक सौंदर्य से अभी भी भरपूर है यह शहर. पहले भी आ चुका है वह इस शहर में, पर कुछ तो कIर्य की व्‍यस्तता और कुछ अपना आलस. वह इस शहर के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त कर सका था. इस बार समय भी अधिक था और काम भी कम. वह अपने एक पुराने मित्र से मिलने चला गया. बातों ही बातों में शहर के दर्शनीय स्थलों की चर्चा चल पडी. बात आकर अटकी शहर के एक प्राचीन मंदिर पर.वह मुस्कुराया. मित्र को उसके मुस्कुराहट का अर्थ तो मालूम था. फिर भी उसने अनुरोध किया मोहन से एक बार वहाँ तक जाने के लिये. मंदिर चूँकि एक पहाडी पर स्थित थी, मोहन को लगा प्राकृतिक सौंदर्य लाभ तो होगा ही. मंदिर काफी पुराना भी था. वह दूसरे ही दिन प्रातः बेला में मित्र के साथ मंदिर की ओर चल पडा. मंदिर तक पहुँचने के लिए छोटी घुमावदार सडक जंगली पेड पौधों और हरियाली भरे झाडियों के बीच थी. उसको यह देख कर अच्छा लग रहा था. ऊपर पहुँचते पहुँचते उसने देखा कि मजबूत दिवालों से घिरे हुए अहाते के बीच था वह मंदिर. इसकी बनावट इसे करीब चार सौ साल पुराना साबित कर रही थी.इसी बीच उसके कानों में सुमधुर भजन की सामुहिक आवाज आने लगी.उसकी जिज्ञासा बढी, क्योंकि आवाज बच्चों के सुकोमल कंठ से निकली हुई लग रही थी. मित्र से कुछ पूछना उसे उचित नहीं लगा और धीरे धीरे वह ऊपर आ गया.ऊपर चढते ही उसकी निगह उठी पुजारी की ओर.फिर देखा उसने सामने हीं छोटे छोटे बच्चों के समूह को भजन गान में लीन.मंत्र मुग्ध हो गया था वह. एक अहसास सा हुआ कि यहाँ अनाथाश्रम तो नहीं चलाया जा रहा है. पर माहौल तो वैसा नहीं लग रहा था. अनाथाश्रम के बच्चों के भयभीत चेहरे उसकी आँखों के सामने थे,पर यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं था. बच्चों की आयु लगभग पाँच से आठ वर्ष के बीच लग रही थी.पहनावे में दीनता तो झलकती थी, पर हीनता का नामोनिशान नहीं था. उनके चेहरे प्रफुल्लित थे. उत्साह टपका पड रहा था उनके चेहरों से. फिर उनका वह शिक्षक और इस मंदिर का पुजारी. बहुत साधारण वेशभूषा थी उसकी भी, पर उसके चेहरे का तेज? मोहन तो चौंधिया सा गया.उसे लग रहा था कि किसी सम्मोहन जाल में फँस गया है वह.उसके आश्चर्य का एक कारण यह भी था कि मंदिर में प्रातः कालीन पूजा के बदले पुजारी बच्चों की शिक्षा में संलग्न था.पुजारी शायद उसके मित्र को पहचानता था.उसके मित्र ने जब पुजारी को अभिवादन किया तो उसकी जिज्ञासु निगाहें मोहन की ओर उठी.मित्र ने बताया कि मोहन उसका मित्र है और दूसरे शहर से आया है.जिज्ञासा बस मंदिर देखने चला आया है.
पुजारी जी ने कहा, “मेरी व्यस्तता तो आप देख ही रहे हैं.मैं तो थोडी देर बाद ही इनको समय दे सकता हूँ.तब तक आप ही इन्हें मंदिर दिखा दीजिये.
“जैसी आपकी आज्ञा.”मित्र बोला और उसको मंदिर के अंदर ले गया.
मंदिर में कोई खास विशेषता तो उसको दिखी नहीं,पर उसकी स्वच्छता मोहन को प्रभावित कर गयी.मंदिर का प्रांगण भी वैसा ही स्वच्छ था.मंदिर की परिक्रमा के दौरान उसने अपने मित्र से पूछा, “ये बच्चे किसके हैं?मंदिर के पुजारी इनको सबेरे सबेरे भजन कीर्तन में कैसे लगाये हुए हैं?”
मित्र बोला, “मोहन तुम्हें सुन कर आश्चर्य होगा कि ये बच्चें घरों में काम करने वाली दाइयों के हैं. इनके माता पिता के पास इतने पैसे तो होते नहीं कि इनकी पढाई का बोझ उठा सकें और सच पूछो तो इन बच्चों के पस इतना समय भी नहीं होता कि वे नियमित रूप से पाठशाला में पाँच छः घंटे बीता सकें. इनके माता पिता से अनुरोध करके किसी तरह समय निकलवा कर पुजारी जी ने इन बच्चों को शिक्षा मार्ग पर लगाया है. भजन के बाद एक धंटे की पढाई करके ये बच्चे अपने अपने घरों को लौट जायेंगे और अपने छोटे भाई बहनों की देख भाल करेंगे.इनकी माएँ जब घरों का काम करके लौटेंगी, तो ये फिर तीन घंटों के लिए यहाँ आ जायेंगे. बाद में अपने अपने घरों में जाकर आराम करेंगे और फिर अपने छोटे छोटे भाई बहनों की देखभाल. इन बच्चों के यहाँ से जाने के बाद पुजारी जी भगवान की पूजा अर्चना में लगेंगे. शाम को जिज्ञासु भक्तों की भीड में घिरे रहते हैं पुजारी जी.ज्ञान ध्यान की बातों के बीच पुजारी जी सबसे ज्यादा जोर देते हैं, दिखावे से दूर रह कर कर्तव्य पालन पर.पुजारी जी उन बातों की विशद व्याख्या भी करते हैं, जो मनुष्य को इंसान बना सके.उनका यह रूप बहुतों को खलता भी है. चढावे के अनुरूप आशीर्वाद न पाने का क्षोभ भी बहुतों को रहता है. पुजारी जी को इन सब कामों से हटाने के लिए बहुत प्रलोभन दिये गये हैं. धमकियाँ भी दी गयी हैं उन्हें. पर वे कहते हैं कि कार्य ही पूजा है और यही उनके भगवान ने भी उन्हें बताया है.
मोहन को लग रहा था कि वह कोई सपना देख रहा है. पुजारी जी के चेहरे का तेज तो उसने देखा ही था. पुजारी जी तो अभी भी उन बच्चों में व्यस्त थे, जब वह मंदिर की परिक्रमा करके लौटा. पुजारी जी से क्षमा याचना करके वह अपने मित्र के साथ लौट गया. रास्ते में वह सोच रहा था कि ईश्वर है और वह इन्हीं कर्तव्यनिष्ठ इंसानों के हृदय में निवास करता है. मोहन को लगा कि उसके हृदय में एक उजाला सा हो रहा है.

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