नास्तिक की देव प्रार्थना
धुन का पक्का विक्रम पुनः पेड़ के पास गया। पेड़ पर से शव को उतारा और उसे कंधे पर ड़ाल लिया। फिर यथावत् श्मशान की ओर बढ़ता हुआ जाने लगा। तब शव के अंदर के वेताल ने कहा, ‘‘राजन्, इस भयंकर श्मशान में आधी रात को इतने कष्ट झेलते हुए तुम्हें देखकर आश्चर्य होता है। देखा गया है कि कुछ आस्तिक धन का उपयोग दान धर्मों के लिए करते हैं। ऐसे दानी, क्रमशः दरिद्र हो जाते हैं। ऐसे ही वे नास्तिक भी हैं, जो दान धर्म के बारे में किंचित भी नहीं सोचते। वे धन इकठ्ठा करते जाते हैं और देखते-देखते करोड़पति बन जाते हैं। वे सब प्रकार के सुखों का अनुभव करने लगते हैं। मैं तुम्हें ऐसे दो आस्तिक व नास्तिक बाप-बेटे की कहानी सुनाऊँगा। थकावट दूर करते हुए उनकी कहानी ध्यान से सुनना।'' फिर वेताल उनकी कहानी यों सुनाने लगाः
भाग्यपुर के निवासी धनपाल को विरासत में भारी संपत्ति मिली। साथ ही उसमें दया, देवभक्ति भी भारी मात्रा में थे। कोई भी ज़रूरतमंद खाली हाथ लौटता नहीं था। उसकी पत्नी सुरुचि को यद्यपि भगवान में विश्वास था पर पति का इस प्रकार से देव भक्ति के नाम पर धन लुटाना कतई पसंद न था। वह हमेशा उससे कहा करती थी कि पुरखों की दी हुई संपत्ति को संतान को सौंपना कर्तव्य है। परंतु धनपाल उसकी बातों पर कोई ध्यान देता नहीं था।
श्रीपाल, गोपाल, गुणपाल उसके तीन पुत्र थे। दूसरा और तीसरा बेटा पिता की ही बातों को मानते थे। बडा बेटा श्रीपाल माँ की बातें ही सही मानता था। वह समझता था कि आस्तिक होने से दान-धर्म में बहुत धन लुटाना पड़ता है। इसीलिए संपत्ति की रक्षा के वास्ते वह बचपन से ही नास्तिक हो गया । और था अव्वल दर्जे का कंजूस भी।
धनपाल ने एक दिन पत्नी से कहा, ‘‘धन शाश्वत नहीं है, वह संतोष नहीं देता। मनुष्य को संतोष देती है तो संतृप्ति मात्र ही। जिनमें देव भक्ति व दया गुण नहीं होते, उनमें कदापि संतृप्ति नहीं होती।''
पत्नी सुरुचि ने पति की बातों का खंडन करते हुए कहा, ‘‘जब धन होता है, तब उसके मूल्य को जानने से हम इनकार करते हैं। जब धन नहीं होता तब हमारी अच्छाई हमारे काम नहीं आती, मांड का पानी भी पीने को नहीं देती।''
बेटों के बालिग होने तक धनपाल के पास जो भी धन था, खर्च हो गया। बीस एकड़ों की भूमि मात्र बच गयी। उसके खर्च के लिए खेत से आनेवाली आमदनी काफी नहीं पड़ती थी, इसलिए उसने खेत का एक भाग बेचना चाहा। तब सुरुचि ने पति से कहा, ‘‘बच्चे जवान हो गये हैं। संपत्ति में से उनका हिस्सा उन्हें दे दीजिये और अपना जो हिस्सा है, आप जैसा चाहें, कर लीजिये।'' कटुता-भरे स्वर में उसने कहा।
धनपाल ने पत्नी ने कहे अनुसार ही किया। उसने संपत्ति को चार हिस्सों में बाँट दिया और बेटों से कहा, ‘‘हममें से हर कोई पाँच एकड़ का स्वामी है। धन के खर्च के विषय में जो मेरी पद्धति को मानते हैं, वे मेरे साथ रह सकते हैं, जो मेरी पद्धति को स्वीकार नहीं करते, वे अलग रह सकते हैं।''
दूसरे और तीसरे बेटे ने पिता के ही साथ रहने का निश्चय किया। परंतु बड़ा बेटा श्रीपाल अलग हो गया। उसे खेती पर भरोसा नहीं था इसलिए गाँव में ही उसने एक छोटा व्यापार शुरू किया। दो सालों के अंदर ही वह लखपति बन गया। कुछ दोस्तों ने उससे धन की सहायता माँगी। पर उसने किसी की भी सहायता नहीं की, इसलिए वे उसे कंजूस कहने लगे।
थोड़े ही समय के अंदर धनपाल ने जो भी ज़मीन थी, बेच डाली। खाने के लिए भी जब कुछ नहीं रह गया तब उसने दूसरों से मदद माँगी। परंतु किसी ने भी मदद नहीं की। तब धनपाल की समझ में आया कि अपनी शक्ति से बढ़कर दान देना अच्छा नहीं। जब कोई दूसरा चारा नहीं रह गया तो वह सपरिवार बडे बेटे के पास गया और बोला, ‘‘तुममें जो दूरदर्शिता थी, वह मुझमें नहीं थी। थोड़ा-सा धन कर्ज़ के रूप में मुझे देना। मैं और तुम्हारे भाई कोई व्यापार शुरू करेंगे और अपना पेट भरते हुए थोडे ही समय के अंदर तुम्हारी रक़म तुम्हें लौटा देंगे।''
श्रीपाल ने कहा, ‘‘अभी आपके हाथ में धन नहीं रहा, इसलिए आप ऐसी बातें कर रहे हैं। धन हाथ में आ जाए तो अपनी पुरानी पद्धति को ही अमल में लायेंगे। इसलिए आप सब मेरे ही साथ रहिये, किसी प्रकार की कमी आने नहीं दूँगा। परंतु हाँ, एक शर्त अवश्य है। जब तक आप यहाँ रहेंगे तब तक आपमें से कोई भी भगवान की पूजा और दान-धर्म नहीं करेंगे।''
बेटे की इन बातों पर धनपाल ने नाराज़ हुए बिना, शांत होकर कहा, ‘‘जब तक जीवित हूँ, भक्ति बिना मुझसे रहा नहीं जायेगा।'' यह कहते हुए वह दूसरों के साथ वहाँ से निकल पड़ा।
नास्तिक होते हुए भी बडे बेटे ने उसकी इज्जत की, अच्छी आवभगत की, इसकी धनपाल को खुशी थी। पर उसे यह ग़म खाये जा रहा था कि श्रीपाल ने धन देकर सहायता करने से इनकार कर दिया। उससे यह धक्का सहा नहीं गया और बीमार पड़ गया। सही इलाज न होने के कारण धनपाल की शारीरिक स्थिति दिन व दिन बिगड़ने लगी। ऐसी परिस्थितियों में अंगद नामक एक रामभक्त उस गाँव में आया। वह राम की महानता का प्रचार करने लगा। गाँव के सबके सब मानने लगे कि जिस घर में उसका पदार्पण होता है, वहाँ शुभ ही शुभ होता है।
गोपाल और गुणपाल को जब यह समाचार मालूम हुआ तब उन्होंने अंगद को अपने घर बुलाया। वहाँ खाट पर लेटे पडे धनपाल को देखकर अंगद ने कहा, ‘‘राम को तुमने ठेस पहुँचायी। इसी कारण तुम्हारी यह दुर्दशा हुई।''
धनपाल ने दीनता के साथ उसे देखते हुए कहा, ‘‘मेरा बड़ा बेटा नास्तिक है। पिता होने के नाते उसकी इस भूल का मैं ही जिम्मेदार हूँ। आप ही बताइये कि इस भूल का परिहार कैसे करूँ?''
‘‘तुमने अपने बेटों की संपत्ति उन्हें नहीं देकर खर्च कर दिया। तुम्हारे इस काम पर क्या भगवान को कष्ट नहीं होगा? तुम संपत्ति को बरबाद कर रहे हो, इसीलिए तुम्हारा बड़ा बेटा नास्तिक हो गया, कंजूस हो गया। समझने की कोशिश करो।''
गुणपाल ने कहा, ‘‘महोदय, मेरे पिताश्री पुण्य कार्यों पर ही खर्च करते थे। फिर भी हम कष्ट सहते जा रहे हैं। मेरा बड़ा भाई नास्तिक है, पर करोडपति बनकर सुखों का अनुभव कर रहा है। क्या यही भगवान का न्याय है?''
अंगद ने गुणपाल के कंधे को थपथपाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बडे भाई ने भगवान का विश्वास नहीं किया, पर उसने भगवान का दूषण भी नहीं किया । कंजूस है, अतः अपात्र दान भी नहीं किया। इसी कारण तुम सबों का पुण्य उसे प्राप्त हुआ है ।''
सुरुचि ने अंगद से कहा, ‘‘आप जैसा कहेंगे, भविष्य में ऐसा ही करेंगे। पहले आप मेरे पति के स्वस्थ होने का उपाय बताइये।''
‘‘तुम्हारे पति को वज्र भस्म का सेवन करना होगा। उसे तैयार करने के लिए एक लाख रुपये के मूल्य का वज्र चाहिये।'' अंगद ने कहा।
सुरुचि, गोपाल, गुणपाल यह सुनकर स्तंभित रह गये। भला इस स्थिति में एक लाख रुपये लाना कैसे संभव हो सकता है। तब अंगद ने उनसे कहा, ‘‘धन जुटा नहीं सकते तो एक दूसरा उपाय भी है। तुममें से कोई एक हृदयपूर्वक भगवान का विश्वास करके धनपाल के स्वास्थ्य के लिए एक पूरी रात राम के मंदिर में प्रार्थना करो। वे तुरंत चंगे हो जायेंगे। प्रार्थना करनेवाले तुम में से कोई एक हो सकता है या गाँववालों में से कोई एक।''
गोपाल, गुणपाल ने अलग-अलग उसी रात को राम के मंदिर में जाकर पिता के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थनाएँ कीं। दूसरे दिन सुरुचि ने जाकर प्रार्थना की। फिर भी कोई फल नहीं निकला। गाँव के बहुत लोगों ने भी प्रार्थना की। पर धनपाल के स्वास्थ्य में थोड़ा भी सुधार नहीं हुआ।
ऐसी स्थिति में श्रीपाल अंगद से मिला और कहा, ‘‘मैं अपने पिताश्री की बहुत इज्जत करता हूँ। आपको लाख रुपये दूँगा। वज्र भस्म तैयार करके उन्हें स्वस्थ कीजिये।''
अंगद ने हँसते हुए कहा, ‘‘तुम कंजूस हो। हृदयपूर्वक धन राशि देने पर ही मेरा वज्र भस्म काम करेगा। इसके लिए तुम्हें इस रात को राम के मंदिर में रहना होगा और भगवान पर संपूर्ण विश्वास रखकर प्रार्थना करनी होगी। तुम्हारे पिता के स्वस्थ होने की संभावना है।''
श्रीपाल ने अपनी सहमति दी। पर गाँववालों ने यह कहकर उसे मंदिर में आने से मना किया कि एक नास्तिक को वे मंदिर में प्रवेश करने नहीं देंगे। रात होते ही उन्होंने मंदिर के दरवाज़े भी बंद कर दिये।
श्रीपाल मंदिर के सामने खड़ा हो गया और प्रार्थना करने लगा, ‘‘हे राम, कहते हैं कि आप पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए राज्य को त्यज कर अरण्य चले गये। अगर यह सच हो तो, पिता के स्वास्थ्य के लिए प्रार्थनाएँ करने के लिए मुझे, मंदिर में प्रवेश होने दीजिये।''
दूसरे ही क्षण मंदिर के दरवाज़े आप ही आप खुल गये। श्रीपाल मंदिर के अंदर गया और श्रीराम की मूर्ति के सामने खड़े होकर प्रार्थना करने लगा।
इससे बहुत पहले ही धनपाल की बीमारी दूर हो गयी। बेहद खुश होकर वह सपरिवार मंदिर आया और श्रीपाल को बडे ही प्यार से गले लगाया।
वेताल ने कहानी बता कर राजा विक्रमार्क से कहा, ‘‘राजन्, परम भक्त धनपाल ने अपनी पूरी संपत्ति खो दी, और नास्तिक श्रीपाल करोड़पति बन गया। क्या यह विचित्र नहीं लगता? धनपाल की पत्नी और उसके दोनों बेटों ने देव प्रार्थना की, फिर भी वह स्वस्थ नहीं हो पाया। परंतु एक नास्तिक की प्रार्थना सफल हुई। क्या यह आपको विचित्र, अस्वाभाविक नहीं लगता? मेरे इन संदेहों के समाधान जानते हुए भी चुप रह जाओगे तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जायेंगे।''
विक्रमार्क ने वेताल के संदेहों को दूर करने के उद्देश्य से कहा, ‘‘देवभक्ति और आर्थिक स्थिति में कोई संबंध नहीं होता। पूर्व जन्म कर्म इसके कारण हैं। धनपाल की पत्नी और उसके दो बेटे जो कष्ट झेल रहे हैं, उनके कारण भगवान पर उनका विश्वास उठ गया। इसी वजह से उनकी प्रार्थनाओं का कोई फल नहीं हुआ। गाँववालों ने भी तकलीफ़ों में उसकी सहायता नहीं की, इसी कारण उनकी प्रार्थनाएँ भी व्यर्थ हुईं। अब रही श्रीपाल की बात। पिता की पद्धति को देखते हुए उसे इस बात का भय हो गया कि देवभक्ति से अपार धन खर्च होता है। इसीलिए वह नास्तिक हो गया। वह अपने पिता को चाहता था, उसका आदर करता था, इसीलिए वज्र भस्म के लिए एक लाख रुपये देने को तैयार हो गया। चित्त शुद्ध हो और सत्कार्य करने को आगे आयें तो भगवान ऐसों की प्रार्थनाएँ सुनते हैं। श्रीपाल के विषय में भी यही हुआ।''
राजा के मौन-भंग में सफल वेताल शव सहित ग़ायब हो गया और फिर से पेड़ पर जा बैठा।
(आधारः ‘‘वसुंधरा'' की रचना)
संकलन व् प्रस्तुति : राजेश मिश्रा, कोलकता
संकलन व् प्रस्तुति : राजेश मिश्रा, कोलकता
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