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शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

क्‍या मायने हैं ऐसी आजादी के!

 

हर साल 15 अगस्त आते ही एक अजब सी खुशी सा अहसास होता है। हर तरफ राष्‍ट्रीय गीत बजते रहते हैं। स्कूलों में बच्चे रंग-बिरंगे प्रोग्राम पेश करते हैं। हर किसी के हाथ में झण्डा होता है। लोग अपने उन मासूम बच्चों के हाथ में भी तिरंगा थमा कर खुद भी खुश होते है और उसे भी खुशी का अहसास दिलाते हैं, जो ठीक से तिरंगा को संभाल भी नहीं पाता। यह सब देखकर जो खुशी मिलती है उसे लफ्जों में बयान नहीं किया जा सकता। हमें आज़ाद होने का अहसास होता है। हमारे बड़े हमें यह कहानी सुनाते हैं कि किस तरह हमारे बाप दादाओं ने अंग्रेजों से लड़ाई की, अपनी जानें गँवाईं और न जाने कितने लोगों की कुर्बानी के बाद हमें यह आज़ादी नसीब हुई है और हम एक आज़ाद मुल्क में सांस ले रहे हैं। मगर ईमानदारी से देखा जाये तो यह सब चीज़ें कहने-सुनने में जितनी अच्छी लगती हैं प्रैक्टिकल में उतनी अच्छी नहीं हैं।

ज़रा ग़ौर कीजिये क्‍या वाकई में हमारा मुल्क आज़ाद है? क्‍या यहाँ हर कोई चैन की सांस ले रहा है? क्‍या हर किसी की बुनयादी जरूरतें पूरी हो रही हैं? क्‍या बेगुनाहों के साथ इंसाफ हो रहा है, मजदूरों को उचित मजदूरी मिल रही है, और न जाने ऐसे ही कितने सवाल हैं जिसका सीधा सा जवाब है नहीं। इस देश में अमीर, अमीर ही होता जा रहा है और जो ग़रीब है वो खुद और उसके बीवी बच्चे भी दो वक़्त की रोटी के लिए दिन रात मेहनत कर रहे हैं। यहाँ बहुत कम लोग ऐसे हैं जो खुश है। न बच्चा खुश है न बूढ़ा खुश है और न ही जवान। बच्चा कुपोषण का शिकार है। जो किसी तरह खुदा की मेहरबानी से बचपन में ही नहीं मरता और कुछ जी लेता है वो बच्चा मजदूरी करने के लिए मजबूर है। सरकार के पास बच्चों की भलाई के लिए एक दो नहीं बल्कि कई योजनाएँ हैं मगर क्‍या इन योजनाओं का लाभ उन बच्चों को मिल रहा है, जिन के लिए यह योजनाएँ बनी हैं। सर्वशिक्षा अभियान के तहत सरकार ने बच्चों के किताबें और खाना का इंतज़ाम तो कर दिया मगर क्‍या ऐसे स्कूलों की संख्या हजारों या लाखों में नहीं है, जहां बच्चों के लिए आने वाला राशन कोई और ले जाता है।

क्‍या यह सही नहीं है कि हमारे देश में लाखों की संख्या में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। क्‍या यह सहीं नहीं है कि जिन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए वो कहीं मजदूरी कर रहे हैं। जिन मासूम बच्चों के हाथों में किताब और पेंसिल होनी चाहिए वो किसी ढाबे में किसी का जूठा बर्तन धो रहा है या फिर चाय की दुकान में छोटू-छोटू की पुकार पर आया बाबू जी की आवाज़ लगा रहा है। 15 अगस्त के दिन ही देख लीजिये जहां अमीरों के बच्चे रंग-बिरंगे कपड़ों में स्कूल में मज़ा कर रहे होते हैं वहीं ग़रीब के बच्चे उसी स्कूल के पास कूड़ा बीन रहे होते हैं। आपको ऐसे बहुत से स्कूल मिल जाएँगे जहां एक तरफ जहां कुछ बच्चे स्कूल में प्रोग्राम पेश कर रहे होते है वहीं स्कूल के गेट से कुछ बच्चे अपने हाथों में कूड़ा की गठरी लिए अंदर प्रोग्राम कर रहे बच्चों को झांक रहे होते हैं। आखिर इन ग़रीब बच्चों के लिए क्‍या मतलब है इस आज़ादी का। अंग्रेजों के जमाने में भी इन्हें रोटी नसीब नहीं थी और आज जबकि देश आज़ाद हो गया है तो आज भी इन्हें रोटी नसीब नहीं हो रही है। इन ग़रीब बच्चों के माँ-बाप पहले अंग्रेजों की ग़ुलामी करते थे अब बड़े जमींदारों की गुलामी करते हैं।

अब बात करें नौजवानों की। देश में सब से ज्यादा परेशान नौजवान ही हैं। जो नहीं पढ़ सका वो भी, और जिस ने पढ़ाई कर ली वो भी नौकरी के लिए दर दर भटक रहा है। बेरोजगारी का यह आलम है कि पीएचडी कर चुके लोग चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं। सरकार ने एक न्यूनतम मजदूरी तय कर रखी है मगर करोड़ों की संख्या में ऐसे नौकरीपेशा हैं जिन्हें सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी से कम पैसा मिल रहा है। अनपढ़ तो कई प्रकार के काम कर लेते हैं, पढे लिखे अधिक परेशान हैं। उनकी समस्या यह है कि वो हर काम कर नहीं सकते और जो कर सकते हैं, उस में उन्हें नौकरी नहीं मिलती और अगर किसी तरह चप्पल घिसने के बाद नौकरी मिल भी जाती है तो तनख्वाह इतनी होती है कि एक वक़्त खाओ तो अगले वक़्त का सोचना पड़ता है।

बेरोजगारी और फिर उसकी वजह से ग़रीबी ने लोगों का जीना हराम कर रखा है। आए दिन ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं की फलां गाँव में फलां व्‍यक्ति ने ग़रीबी से तंग आकर पहले अपने मासूम बच्चों को मारा और फिर खुद भी जान दे दी। हद तो यह है कि जिस देश में हम आज़ादी की खुशी मानते हैं वहाँ भूख से भी लोग मर रहे हैं। ज़रा सोचिए जिस देश में हजारों टन अनाज रखे-रखे सड़ जाता है, उस देश में भूख से किसी की मौत हो जाना उस पूरे देश के लिए शर्म की बात नहीं तो और क्‍या है। जिस देश को किसानों का देश कहा गया है वहाँ किसानों के साथ ही धोखा हो रहा है। कहीं किसानों से ज़मीन छीनी जा रही है तो कहीं किसान क़र्ज़ के बोझ से दबकर खुदकुशी कर रहे हैं। बूढ़ों की ज़िंदगी तो और भी बुरी है। जब चुनाव होता है तो यह बूढ़े तकलीफ उठा कर अपने बच्चों के कंधे पर बैठ कर वोट देने जाते हैं, मगर जब उन्हें राशन और पेंशन की ज़रूरत होती है तो उनकी आंखें ताकती ही रह जाती हैं। इस देश में वही आज़ाद है जिसके हाथ में लाठी है और वही लोग मज़े कर रहे हैं जो इन लाठी वालों के साथ है।

केंद्र की लाठी सोनिया के हाथ में हैं इसलिए उनके लोगों ने बाबा रामदेव और उनके लोगों पर लाठीयां बरसाईं और किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। उसी तरह बिहार में इन दिनों लाठी नितीश कुमार के पास है उनके पुलिस वालों ने फारबिसगंज में बेगुनाह मुसलमानों को मौत के घाट उतारा, मगर वहाँ भी किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। ग़रीब की सुनने वाला कोई नहीं है। राजनेताओं में अधिकतर का मक़सद यही होता ही कि अधिक से अधिक पैसे बनाए जाएँ। किसी को देश सेवा से कुछ लेने देना नहीं है सब फालतू की बातें हैं। आज देख लीजिए हर ओर से भरष्टाचार की खबरें आ रही हैं। जिसे जब मौका मिला उसने देश को लूटा। पहले अंग्रेजों ने लूटा अब अपने ही लूट रहे हैं।


हमारे देश में योजनाओं की कमी नहीं है। मगर उनमें अधिकतर या तो कागज़ पर ही काम करती है या फिर उनसे सिर्फ उन्हीं लोगों को लाभ होता है जो दांव पेंच में माहिर होते है। जो ग़रीब हैं उन्हें इंदिरा आवास का घर नहीं मिल रहा और जो पैसे वाले हैं उन्‍हों ने कई-कई घर ले रखे हैं। ग़रीबों का नाम बीपीएल में नहीं है और जिनकी आय हजारों में है वो बीपीएल के मज़े ले रहे हैं। ग़रीब आदमी एक लीटर किरासन के लिए तरस रहा है और अमीरों के यहाँ तेल भरे पड़े हैं। किया आज़ादी का यही मतलब होता है? जब भूख से लोग मरते रहें, किसान खुदकुशी करते रहें, प्रसव के दौरान मामूली दवा की कमी से महिलाओं की मौत होती रहे, बच्चे स्कूल के बजाए चाय की दुकान पर काम करते रहें, लाखों लोग ज़िंदगी भर फुटपाथ पर सोने को मजबूर हों तो ऐसे में क्‍या यह कहना उचित नहीं है की बेकार है ऐसी आज़ादी।

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