बिहार के गौरव डॉ. बिधानचंद्र राय
Bidhan Chandra Roy |
डॉ. बिधान चंद्र राय (जुलाई 1, 1988 - जुलाई 1, 1962) चिकित्सक, स्वतंत्रता सेनानी थे। वे पश्चिम बंगाल के द्वितीय मुख्यमंत्री थे, 14 जनवरी 1948 से उनकी म्रत्यु तक 14 वर्ष तक वे इस पद पर थे। उनका जन्म खजान्ची रोड, बन्कीपुर, पटना, बिहार मे हुआ था। खजान्ची रोड स्थित उन्के जन्म स्थान को वर्तमान मे अघोर प्रकाश शिशु सदन नामक विधालय मे परिवर्तित कर दिया गया है। उन्होने कलकत्ता विश्वविघालय के कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की। उनके जन्मदिन 1 जुलाई को भारत मे चिकित्सक दिवस के रुप मे मनाया जाता है। उन्हे वर्ष 1961 में भारत रत्न से सम्मनित किया गया।
बिधानचंद्र राय एक महान विभूति थे। एक वरिष्ठ चिकित्सक, शिक्षाशास्त्री, स्वतंत्रता सेनानी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता और आजाद हिन्दुस्तान में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप में एक नामचीन हस्ताक्षर हैं। डॉ राय ने बिहार में जन्म लेकर 20 वर्ष की आयु तक वहीं शिक्षा पाई, फिर अधिकतर बंगाल में रहते हुए और काम करते हुए वे समय-समय पर असम भी गए। इस तरह डॉ राय खुद को तीनों प्रांतों का मानते थे। वे गर्व से स्वीकारते कि जैसे वे आज हैं, इसलिए हैं, क्योंकि तीनों प्रांतों के लोगों के बीच समान रूप से रहे हैं और उन्हें समान रूप से भलीभांति जानते हैं। उनका स्पष्ट विचार था कि वास्तव में अंतर्प्रांतीय विवादों का कोई वास्तविक आधार नहीं है। उन्होंने साबित कर दिया कि व्यक्ति वंश, जात, रंग, रूप आदि से चलते नहीं, बल्कि अपने गुणों के चलते आदर पाता है। संस्कृत के कवि ने ठीक ही लिखा है ‘गुणः सर्वत्र पूजयन्ते’ मेरी मान्यता है कि आदमी मुफलिसी में भी महान बन सकता है। सिर्फ शर्त यही है कि वह सद्गुणों के विकास के लिए सतत् प्रयत्नशील रहे। बिधान भी ऐसे ही महान इंसान थे। गरीबी और बीमारी के साथ जीवन भर संघर्ष करते हुए वह कभी निराश या उदास नहीं हुए। उनका जन्म 1 जुलाई सन् 1882 को बिहार के पटना जिले के बांकीपुर में हुआ था। अपने घर में पांच भाईबहनों में वे सबसे छोटे थे। उन्होंनेपटना विश्वविद्यालय से गणित में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां प्रथम वर्ष निर्बाध बीता, किंतु कष्टों से रहित नहीं रहा। कॉलेज के पांच वर्ष में केवल पांच रुपये की किताब ही खरीद पाए। सन् 1904 में जब बंगाल विभाजन की घोषणा हुई तब बिधान मेडिकल कॉलेज में थे। बंगाल में अरविंद घोष, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय तथा बिपिनचंद्र पाल की रहनुमाई में राष्ट्रीय आंदोलन मूर्त रूप ले रहा था। आंदोलन से प्रभावित बिधान ने हृदय में उठने वाली भावनाआें को काबू किया। उन्हें आभास था कि व्यावसायिक योग्यता प्राप्त करके वे राष्ट्र की बेहतर सेवा कर सकेंगे। स्नातक होने के तुरंत बाद प्रांतीय स्वास्थ्य सेवा में उन्हें नौकरी मिल गई। कठोर परिश्रम और अटूट लगन से उन्होंने एमडी की प़ढाई पूरी की, फिर आगे प़ढने के लिए इंग्लैंड जाने का इरादा किया। इरादा नेक था, पर दरिद्रता ने अभी उनका दामन नहीं छ़ोडा था। उन्होंने दो साल तीन माह का अवकाश लेकर और अपनी अल्प आय में से बचाए गए 1200 रुपये लेकर फरवरी 1909 में वे इंग्लैंड के लिए रवाना हुए। दो साल तीन महीने में ही सेंट बार्थोलोम्यूस से एमआरसीपी और एफआरसी एस की परीक्षा उत्तीर्ण की।
सन् 1911 में इंग्लैंड से लौटकर डॉ राय ने पहले कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में और फिर कैम्पबैल मेडिकल स्कूल तथा पुनः कारमाइकेल मेडिकल कॉलेज में अध्यापन किया। बाद में दोस्तों से पैसे उधार लेकर मामूली स्तर पर डॉक्टरी करना शुरू किया। प्रेक्टिस करते हुए यहां जनता की दुर्दशा, गरीबी और अभावों से उनका साक्षात्कार हुआ। देशवासियों की दयनीय दशा देखकर उनका हृदय हिल गया। उनकी हर मुमकिन मदद करने की धुन ही उनके जीवन का मकसद बन गया। चिकित्सा शास्त्र की शिक्षा की व्यवस्था में डॉ राय का योगदान सर्वविदित है। उनका कहना था कि ‘जब तक लोग शरीर व मन से स्वस्थ व सशक्त नहीं होंगे, तब तक स्वराज स्वप्न ही रहेगा। यह तब तक नहीं होगा, जब तक माताआें के पास बच्चों की देखभाल करने के लिए अच्छा स्वास्थ्य और बुद्धिमत्ता नहीं होगी।’ सन् 1926 में महिलाआें और बच्चों के लिए चित्तरंजन सेवा सदन खोला गया। सन् 1922 से 1929 तक संपादक व बोर्ड के सदस्य के रूप में कलकत्ता मेडिकल जर्नल के लिए काम करते रहे । वे सन् 1929 में अखिल भारतीय मेडिकल कांफ्रेंस के अध्यक्ष थे और सन् 1943 में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के प्रथम अशासकीय अध्यक्ष बने। स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधा की समस्याआें को सुलझाने में उन्होंने अमूल्य योगदान दिया । राजनीति में आने के बहुत पहले से ही डॉ राय को शिक्षा के प्रति लगाव था। वे सन् 1916 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के फैलो चुने गए। इससे उनका संबंध जीवनपर्यंत बना रहा। सन् 1930 में छात्रों के सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने पर पाबंदी लगाने के चलते कुछ समय के लिए अलग हो गए थे। सन् 1923 में बंगाल विधानसभा के लिए चुनाव ल़डा। सन् 1942 में वे राष्ट्रीय शैक्षिक परिषद के अध्यक्ष बने । 16 सितंबर 1955 को उन्होंने जादवपुर विश्वविद्यालय प्रस्ताव पेश किया। ख़डगपुर में आईआईटीकी स्थापना में उन्होंने सहयोग दिया। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय की स्थापना में सहायक बने। डॉ राय व्यावसायिक प्रशिक्षण, ग्राम विकास तथा ग्रामीण प्रदेशों में उच्च शिक्षा के लिए ग्रामीण विश्वविद्यालयों की श्रृंखला की स्थापना के हिमायती थे। सांस्कृतिक मूल्यों के साथसाथ वैज्ञानिक उन्नति और आर्थिक विकास में अटल आस्था होने के कारण डॉ राय ने विज्ञान, तकनीकी, कृषि, मानविकी और नृत्य आदि अन्य कलाआें के लिए एकएक नए विश्वविद्यालय की स्थापना की। उन्होंने संस्कृत का अनिवार्य विषय के रूप में अध्ययन का समर्थन किया। वह मानते थे कि यह छात्रों को राष्ट्रीय विचारधारा एवं संस्कृत से अवगत कराने में सफल होगा। डॉ राय सन् 1942 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए। सन् 1944 में उनको डॉक्टर ऑफ साइंस की उपाधि दी गई। जनवरी 1957 में उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। मई सन् 1927 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस बर्मा के मांडले जेल में कारावास के बाद कलकत्ता लौटे तो डॉ राय से उनका निकट संपर्क हुआ। सुभाष के सिद्धांत, ‘स्वतंत्रता जीवन है’, की उन पर गहरी छाप प़डी। वे मानते थे कि यदि राजनैतिक स्वतंत्रता पाकर भी आर्थिक दासता और आत्मघाती पारस्परिक घृणा से लोग मुक्त नहीं हो पाते तो उनके लिए पराधीन रहना बेहतर है। डॉ राय का मत है कि भारतवासियों को समस्त संकीर्णता त्यागकर सभी मोचा] पर भारत की विजय के लिए द़ृढता से आगे ब़ढना चाहिए। बीस के दशक के आरंभिक वषा] में डॉ राय नेहरू परिवार के नजदीक होकर उनके सदस्य जैसे बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू को रसगुल्लों का बहुत शौक था। जब भी वे कलकत्ता आते, डॉराय उन्हें कुछ रसगुल्ले अवश्य भेजते। उनकी मित्रता विनोदपूर्ण प्रणों से भरपूर थी। परिहास और प्रसन्न मुद्रा के कारण उनकी बातचीत ब़डी मनोहर होती थी। देशबंधु चित्तरंजन दास की प्रेरणा से फारवर्ड समूह के अखबारों में रुचि लेने लगे और सन् 1934 में फारवर्ड के अध्यक्ष भी बने। इनके नेतृत्व में इसने कांग्रेस तथा बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन का निडरता से समर्थन किया। पत्रकारिता में डॉ राय की रुचि अखबारों और समाचार एजेंसियों को प्रोत्साहन देने तक सीमित नहीं थी। उनके उपकुलपति काल में ही सन् 1951 में पत्रकारिता की पाठ्यक्रम के रूप में शुरुआत हुई। वे भारतीय पत्रकार संघ के अध्यक्ष थे और मुख्यमंत्री बनकर भी उन्होंने अपनी यह सदस्यता जारी रखी।
डॉ राय विचारधारा से आजीवन कांग्रेसी और गांधीवादी रहे। सन् 1925में दार्जिलिंग में गांधीजी से डॉ राय की भेंट हुई तो दोनों में तुरंत दोस्ती हो गई। उन्हें गांधीजी से वैसा ही आध्यात्मिक मार्गदर्शन मिला, जैसा उन्हें अपने मातापिता से मिला था। जब सन् 1933 में पुणे में पर्णकुटी में गांधीजी उपवास कर रहे थे, तब डॉ राय उनके साथ थे। बाद में गांधीजी ने सन् 1943 में ‘भारत छ़ोडो आंदोलन’ में बंदी बनाए जाने के बाद पुणे में 21 दिवसीय ‘यथासामर्थ्य’ उपवास किया तो उन्होंने डॉ राय से अपनी देखभाल करने को कहा। आगामी वषा] में डॉ राय गांधीजी के घनिष्ठ मित्र और निजी चिकित्सक बन गए पर उन्होंने कभी उनका अंधानुकरण नहीं किया। जब भी वे उनके सिद्धांत या दर्शन से असहमत होते तो उनसे बहस करते। सन् 1925 में राजनीति में प्रवेश किया और 42 वर्ष की आयु में बंगाल के राजनैतिक मंच के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। शुरू में उन्होंने किसी सियासी चर्चा में भाग नहीं लिया। उनकी सबसे ज्यादा रुचि शिक्षा और चिकित्सा की समस्याआें में थी। उन्होंने हुगली के प्रदूषण के कारणों और भविष्य में इसकी रोकथाम के तरीकों की जांच के लिए समिति गठन का प्रस्ताव पेश किया। उन्होंने 24 फरवरी 1926 को सभा में पहला राजनीतिक भाषण दिया। धीरेधीरे मगर द़ृढता से वे एक उत्कृष्ट विधायक संसदविद् बन गए। देशबंधु की मृत्यु के बाद सन् 1927 में दल के उपनेता बनाए गए। उनके नेतृत्व की योग्यता सिद्ध हो जाने के बाद उनका मेयर चुना जाना भी तय था, लिहाजा सन् 1931 में सर्वसम्मति से उनका चुनाव हुआ। उनके नेतृत्व में महापालिका ने निःशुल्क शिक्षा, निःशुल्क चिकित्सा, स़डकों और रोशनी की बेहतरी और जल वितरण की सुविधा ब़ढाने के लिए अधिकाधिक प्रयास किया। अस्पतालों और धर्मार्थ दवाखानों को आर्थिक सहायता देने के नियम बनाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्होंने देशबंधु के मानवतावादी दर्शन के साथ विशेष निजी योगदान भी दिया।
डॉ राय सन् 1928 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य चुने गए थे। विरोध तथा संघर्ष से स्वयं को अलग रखते हुए सभी नेताओं को अपनी गंभीरता, व्यवहार कुशलता और दलीय निष्पक्षता द्वारा गहराई तक प्रभावित किया। सन् 1929 में बंगाल में सविनय अवज्ञा आंदोलन का संचालन किया। अक्टूबर सन् 1934 में वे बंगाल कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गए। अप्रैल 1939 में सुभाष बाबू का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देेने के बाद गांधीजी की मंशा थी कि डॉ राय कार्यकारिणी समिति में शामिल हों। पर भीतरी गुटबाजी के चलते यह मुमकिन नहीं हो सका। द्वितीय महायुद्ध शुरू होने पर डॉ राय का कांग्रेस से मतभेद हो गया। उन्होंने सन् 1940-41 में कार्यकारिणी समिति से बाहर रहने का स्वयं का आग्रह किया। दरअसल वह सियासी अख़ाडे में शामिल होने के बजाय डॉक्टरी में अपना समय देना चाहते थे । 18 जनवरी 1948 को गांधीजी का एक और उपवास समाप्त हुआ तो बंगाल विधायक दल का निर्णय गांधीजी को बताया और मंत्रिमंडल बनाने में अपनी हिचकिचाहट भी प्रकट की। गांधीजी ने सलाह दी कि यदि विधानसभा में कांग्रेस सदस्यों की उनकी आवश्यकता है, तो इसे स्वीकार करना उनका कर्तव्य है। डॉ राय ने जोर देकर कहा कि ‘मैं ऐसा तभी करुंगा, यदि दल का हस्तक्षेप नहीं हो। दल की सदस्यता के आधार पर नहीं,योग्यता और निपुणता के आधार पर मंत्री चुनने को मैं स्वतंत्र रहूं।’ जब कांग्रेस विधायक दल तथा कांग्रेस समिति इस बात को मान गई तब कहीं जाकर उन्होंने मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला। राज्यपाल सी गोपालाचारी ने 23 जनवरी 1948 को उन्हें पद की शपथ दिलाई। पद स्वीकार करके डॉराय संकटों और विरोधियों से डरे नहीं,बल्कि अडिग रहे और डटकर सामना किया। शांत और गंभीर रहकर हर संकट का सामना करने का दृढ निश्चय करके तीन साल में ही वे अराजकता मिटाने में कामयाब हो गए, साथ ही अपने प्रशासन की प्रतिष्ठा और सम्मान को भी बरकरार रखा।
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