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शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

दिवाली पर कविताएँ


साथी, घर-घर आज दिवाली / हरिवंशराय बच्चन

साथी, घर-घर आज दिवाली!

फैल गयी दीपों की माला
मंदिर-मंदिर में उजियाला,
किंतु हमारे घर का, देखो, दर काला, दीवारें काली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

हास उमंग हृदय में भर-भर
घूम रहा गृह-गृह पथ-पथ पर,
किंतु हमारे घर के अंदर डरा हुआ सूनापन खाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!

आँख हमारी नभ-मंडल पर,
वही हमारा नीलम का घर,
दीप मालिका मना रही है रात हमारी तारोंवाली!
साथी, घर-घर आज दिवाली!


‘दीवाली के दीप जले’ – रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी


कालजयी शायर रघुपति सहाय श्रीवास्तव ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी की एक ग़ज़ल
दे रहा हूं जिसका शीर्षक हैः “दीवाली के दीप जले”। फ़िराक़ गोरखपुरी को उनकी
कृति ‘गुले-नग़मा’ के लिए १९६० में साहित्य अकादमी पुरस्कार और १९६९ में
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
‘फ़िराक़’ गोरखपुरी
नई हुई फिर रस्म पुरानी दीवाली के दीप जले
शाम सुहानी रात सुहानी दीवाली के दीप जले
धरती का रस डोल रहा है दूर-दूर तक खेतों के
लहराये वो आंचल धानी दीवाली के दीप जले
नर्म लबों ने ज़बानें खोलीं फिर दुनिया से कहन को
बेवतनों की राम कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों-लाखों दीपशिखाएं देती हैं चुपचाप आवाज़ें
लाख फ़साने एक कहानी दीवाली के दीप जले
निर्धन घरवालियां करेंगी आज लक्ष्मी की पूजा
यह उत्सव बेवा की कहानी दीवाली के दीप जले
लाखों आंसू में डूबा हुआ खुशहाली का त्योहार
कहता है दुःखभरी कहानी दीवाली के दीप जले
कितनी मंहगी हैं सब चीज़ें कितने सस्ते हैं आंसू
उफ़ ये गरानी ये अरजानी दीवाली के दीप जले
मेरे अंधेरे सूने दिल का ऐसे में कुछ हाल न पूछो
आज सखी दुनिया दीवानी दीवाली के दीप जले
तुझे खबर है आज रात को नूर की लरज़ा मौजों में
चोट उभर आई है पुरानी दीवाली के दीप जले
जलते चराग़ों में सज उठती भूके-नंगे भारत की
ये दुनिया जानी-पहचानी दीवाली के दीप जले
भारत की किस्मत सोती है झिलमिल-झिलमिल आंसुओं की
नील गगन ने चादर तानी दीवाली के दीप जले
देख रही हूं सीने में मैं दाग़े जिगर के चिराग लिये
रात की इस गंगा की रवानी दीवाली के दीप जले
जलते दीप रात के दिल में घाव लगाते जाते हैं
शब का चेहरा है नूरानी दीवाले के दीप जले
जुग-जुग से इस दुःखी देश में बन जाता है हर त्योहार
रंजोख़ुशी की खींचा-तानी दीवाली के दीप जले
रात गये जब इक-इक करके जलते दीये दम तोड़ेंगे
चमकेगी तेरे ग़म की निशानी दीवाली के दीप जले
जलते दीयों ने मचा रखा है आज की रात ऐसा अंधेर
चमक उठी दिल की वीरानी दीवाली के दीप जले
कितनी उमंगों का सीने में वक़्त ने पत्ता काट दिया
हाय ज़माने हाय जवानी दीवाली के दीप जले
लाखों चराग़ों से सुनकर भी आह ये रात अमावस की
तूने पराई पीर न जानी दीवाली के दीप जले
लाखों नयन-दीप जलते हैं तेरे मनाने को इस रात
ऐ किस्मत की रूठी रानी दीवाली के दीफ जले
ख़ुशहाली है शर्ते ज़िंदगी फिर क्यों दुनिया कहती है
धन-दौलत है आनी-जानी दीवाली के दीप जले
बरस-बरस के दिन भी कोई अशुभ बात करता है सखी
आंखों ने मेरी एक न मानी दीवाली के दीप जले
छेड़ के साज़े निशाते चिराग़ां आज फ़िराक़ सुनाता है
ग़म की कथा ख़ुशी की ज़बानी दीवाली के दीप जले


कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला

* सुरेन्द्र सिंह " झंझट " 


अँधेरे का चारों तरफ बोलबाला |
कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला |

     महंगाई ने है कमर तोड़ डाली
        गरीबों की थाली है रोटी से खाली
               है भ्रष्टों की चांदी-दलालों की चांदी
                    नेताओं ने भारत की लुटिया डुबा दी


घोटालों का खेल-कहीं खेल में घोटाला |
कहीं पर दिवाली - कहीं पर दिवाला |


पंचों-प्रधानों की लीला निराली
     इलेक्सन में सारी हदें तोड़ डाली
          वोटर ने भी खूब जमकर छकाया
                चला दाम-दारू औ मुर्गा उड़ाया

मगर वोट-नोटों की गड्डी में डाला |
कहीं पर दिवाली- कहीं पर दिवाला |

भाई की महफ़िल का क्या है नज़ारा
     चल जाती है गोली मिलते इशारा
            जगमग हवेली भला क्या कमी है
                  जुआ और इंग्लिश की महफ़िल जमी है

पुलिस-नेता-अफसर का संगम निराला |
कहीं पर दिवाली - कहीं पर दिवाला |

मिलावट-मिठाई है याकि जहर है
     चारों तरफ बस कहर ही कहर है
               धरम-जाति-वर्गों में हम सब बँटे हैं
                    कुर्सी के चक्कर में बड़के फँसे हैं

शहीदों के सपनों को ही बेंच डाला |
कहीं पर दिवाली - कहीं पर दिवाला |

देखो गरीबी में आटा है गीला
        बिना रंग डाले ही चेहरा है पीला
              समोखन के घर में न है एक पाई
                   लिया ब्याज पर तब दिवाली मनाई

बताओ भला है कहाँ पर उजाला ?
कहीं पर दिवाली-कहीं पर दिवाला

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